Essential Element of Muslim Marriage in hindi for llb

Essential Element of Muslim Marriage
A] सक्षम पक्षकार (Competence Parties) –
1) उसने यौनावस्था की आयु (Age of Puberty) प्राप्त कर ली हो।
2) स्वस्थ मस्तिष्क (Sound mind) वाला हो।
3) मुस्लिम (Muslim) हो। be a muslim
📎Age of Puberty➡
📍मुस्लिम विधि में विवाह, मेहर तथा तलाक से संबंधित मामलों में वयस्कता की आयु 18 वर्ष ना होकर योवना अवस्था की आयु अर्थात 15 वर्ष मानी जाती है
📍जब पक्षकार 15 वर्ष की आयु पूरी कर लेते है तो वह विवाह के लिए विधिमान्य सहमति भी दे सकते है।
📍लेकिन अगर कोई 15 वर्ष की आयु (Age of Puberty) प्राप्त न की हो, तो विवाह के लिए उसे अवयस्क (Minor) माना जायेगा, तथा उसकी ओर से उसके अभिभावक विवाह की सहमति दे सकते है।
📍Child Marriage Prohibition Act (1929) के अनुसार - जो बाल-विवाह की प्रथा को रोकने के लिए बनाया गया इसमें पुरुष के लिए न्यूनतम आयु विवाह के लिए 21 वर्ष की गए है। इस अधिनियम (Act) का प्रभाव Muslim Law पर भी पड़ता है।
📎Soundness of Mind➡
📍विवाह सम्पन्न होते समय दोनों पक्षकारो का स्वस्थचित होना आवश्यक है।
📎be a muslim➡
📍यदि पति व पत्नी दोनो ही मुस्लिम है तो वहां पर वह किसी भी शाखा के हो वह विवाह विधिमान्य माना जायेगा लेकिन इनके धर्म अलग-अलग होने पर इनका विवाह अंतर्धर्मीय विवाह (Inter religious Marriage) माना जायेगा। अंतर्धर्मीय मुस्लिम विवाह (Inter religious Marriage) के नियम निम्न है-
सुन्नी पुरुष और शिया महिला के मध्य विवाह विधिमान्य विवाह है।
सुन्नी पुरुष और किताबिया महिला के मध्य विवाह विधिमान्य विवाह है।
सुन्नी पुरुष और गैर मुस्लिम अथवा गैर कितबिया महिला के मध्य विवाह अनियमित विवाह है।
शिया पुरुष और किताबिया अथवा गैर किताबिया महिला के मध्य विवाह शून्य विवाह है।
मुस्लिम महिला और गैर मुस्लिम पुरुष के मध्य विवाहशून्य विवाह है।
B] स्वतंत्र सहमति (Free Consent)➡
मुस्लिम विवाह के विधिमान्य होने के लिए पक्षकारो या उनके अभिभावकों की सहमति  आवश्यक है पक्षकार यदि वयस्क तथा स्वस्थचित मस्तिष्क वाले है तो उनकी स्वयं की सहमति ही पर्याप्त  है | सहमति चाहे स्वयं पक्षकारो की हो या उनके अभिभावको की, स्वतंत्र होनी चाहिये



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Marriage difference in Sunni and Shia सुन्नी एवं शिया में विवाह संबंधित अंतर

Marriage difference in Sunni and Shia
सुन्नी एवं शिया में विवाह संबंधित अंतर


1.) सुन्नी में मुता विवाह अमान्य (Invalid) होता है। शिया में मुता विवाह मान्य (Valid) है।

2.) पिता (Father) व पितामह (Grandfather) के अलावा भी अन्य लोग विवाह के संरक्षक (Guardian) हो सकते हैं।
केवल पिता (Father) व पितामह (Grandfather) ही विवाह के संरक्षक (Guardians) हो सकते हैं।

3.)विवाह के समय दो साक्ष्यों (Witnesses) का होना आवश्यक है।
विवाह के समय साक्ष्यों (Witnesses) की आवश्यकता नहीं होती है।

4.)एक साथ अकेले रहने में ही विवाह पूर्ण माना जाता है।
विवाह की पूर्णता समागम (Sexual intercourse) के बाद होती है।

5.) विवाह Valid, Irregular या Void हो सकता है विवाह Valid, या Void हो सकता है।

6.)एक सुन्नी पुरुष को किसी गैर मुस्लिम स्त्री (चाहे वह किसी संप्रदाय की हो) तथा किसी किताबिया लड़की से विवाह करने का पूर्ण अधिकार है जबकि एक सुन्नी मुस्लिम स्त्री को किसी गैर मुस्लिम से विवाह करने का कोई अधिकार नहीं होता है।
लेकिन शिया में पुरुष व स्त्री दोनों ही किसी गैर मुस्लिम से विवाह नहीं कर सकते हैं।
केवल पुरुष किसी किताब या या अग्निपूजक पारसी लड़की से मुता या अस्थाई विवाह कर सकता है।

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Schools of Muslim law मुस्लिम विधि की विचारधाराएं

Schools of Muslim lawमुस्लिम विधि की विचारधाराएं


पैगंबर मोहम्मद इस्लामी राष्ट्रमंडल के सर्वे सर्वा थे वह कानून संबंधित विषयों के सर्वोच्च प्राधिकारी भी थे उनके देहांत के बाद तत्कालीन समस्या उनके उत्तराधिकार को प्राप्त होने लगी थी।

पैगंबर मोहम्मद साहब का उत्तराधिकारी किसे माना जाए इस प्रश्न को हल करने के लिए मुस्लिम विधि दो विचारधाराओं में विभाजित हो गई।

सुन्नी स्कूल तथा शिया स्कूल



A) सुन्नी विचारधाराएं (Sunni Schools)➡

📌 खलीफा के पद को निर्वाचन द्वारा भरने के समर्थक "सुन्नी" कहलाए, और इन्होंने अबूबकर को अपना प्रथम खलीफा चुना।
📌 भारत में अधिकांश मुसलमान सुन्नी संप्रदाय के हैं।

सुनी विचारधाराएं की चार उप विचारधाराएं हैं -
1) हनफी विचारधाराएं (The Hanafi School)
2) मालिकी की विचारधाराएं (The Maliki School))
3) शफी विचारधाराएं (The Shafie School)
4) हनबली विचारधाराएं (The Hanbali School)


1) हनफी विचारधाराएं (The Hanafi School)➡

📌यह मुस्लिम विधि की पहली और सबसे प्रसिद्ध विचारधारा है।
📌पहले यह कूफ़ा स्कूल के नाम से जाना जाता था।
📌इसके बाद इस स्कूल के संस्थापक 'अबू हनीफा' के नाम पर इस स्कूल का नाम 'हनफी स्कूल' हो गया।
📌अबू हनीफा पहले मुस्लिम ज्यूरिस्ट थे जिन्होंने मुस्लिम विधि को पूरे विश्व में फैलाने के लिए अपने शिष्यों को प्रेरित किया तथा अपनी थ्योरी का आधार कुरान व हदीस को बताया।
📌अबू हनीफा ने कयास को मुस्लिम विधि के स्रोत के रूप में मान्यता प्रदान की।
📌अबू हनीफा ने 'फक़्क अकबर' नामक पुस्तक लिखी।
📌अबू हनीफा के दो शिष्य थे, इमाम मोहम्मद और इमाम अबू युसूफ इन दोनों ने हनफी स्कूल का विकास किया।


2) मालिकी की विचारधाराएं (The Maliki School))➡
📌यह नाम मदीना के मुफ्ती 'अश मलिक' के नाम पर रखा गया।
📌यह मुस्लिम धर्म के प्रमुख वरिष्ठ थे।
📌इन्होंने कुरान व हदीस को अपने सिद्धांत का आधार बताया।
📌संप्रदाय मे भी कयास को विधि का महत्वपूर्ण स्रोत माना।
📌अश मलिक ने सबसे प्राचीन ग्रंथ 'किताबें मुक्ता' की रचना की जो की हदीस की Most authoritative book थी।
📌भारत में मालिकी स्कूल के followers नहीं पाए जाते हैं।


3) शफी विचारधाराएं (The Shafie School)➡

📌शफ़ई स्कूल के प्रवर्तक अश-शफी थे ।
📌यह भी प्रमुख विधिवेत्ता थे।
📌ये कुरान के बाद सुन्ना को विधि का स्रोत मानते थे इसलिए इनको सुन्नत का ख़िताब मिला
📌इस संप्रदाय में इज्मा को अत्यधिक महत्वपूर्ण बताया गया था।
ख📌कयास के लिए सर्वप्रथम नियम निर्धारण का कार्य इसी संप्रदाय में किया |


4) हनबली विचारधाराएं (The Hanbali School)➡

📌इस विचारधारा के संस्थापक अबु हनबल थे।
📌यह परम्परावादी अधिक और विधिवेत्ता कम  थे।
📌इस कारण उन्होंने सुन्ना या हदीश की परम्पराओं का प्रयोग अपने सिद्धांतो में अधिक किया है।
📌इस विचारधारा के अनुसार कयास को विधि का स्रोत तभी मानना चहिये जब उसकी आवश्यकता हो।



B) शिया विचारधाराएँ (Shia Schools)➡

📌मुहम्मद साहब के वंशजो को उत्तराधिकार के आधार पर खलीफा नियुक्त करने वाले मुसलमान, शिया सम्प्रदाय कहलाये ।
📌इस समुदाय ने अली को अपना प्रथम खलीफा माना।
📌इस सम्प्रदाय में प्रमुख रूप से तीन विचार पद्धतियां मान्य थी –

(a)- अथना-अशारिया विचारधारा (The Athna-Asharia School) – इस सम्प्रदाय को मानने वाले मुहम्मद साहब के जो बारह इमाम हुए उनके अनुयायी है | ये कट्टर मुसलमान और कुरान को महत्व देते है |

(b)- इस्माइलिया विचारधारा (The Ismailia School) –इस सम्प्रदाय को मानने वाले सातवे इमाम इस्माइल को अपना प्रणेता मानते थे इनको सप्त-इमामी सम्प्रदाय भी  कहा जाता है |

(c)- जैदिया विचारधारा (The Zaidi School) – इस सम्प्रदाय के संस्थापक चौथे इमाम जैद थे | ये शिया और सुन्नीदोनों के धर्मावलम्बी है, और मूलतः यमन में पाए जाते है |

👉SOURCES OF MUSLIM LAW IN HINDI | मुस्लिम विधि के स्रोत | Muslim Law Notes for LLB https://youtu.be/E9kPr2HNXZ4

👉WHO IS MUSLIM | मुस्लिम कौन है? | IN HINDI | Muslim Law Notes for LLB | Muslim Law
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👉DOCTRINE OF PITH AND SUBSTANCE | सार तत्व का सिद्धांत | IN HINDI  for Llb &  CS Constitutional law https://youtu.be/fiol9gxVKb4


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👉DOCTRINE OF SEVERABILITY | पृथक्करणीयता का सिद्धांत | IN HINDI FOR LLB & CS Constitutional Law notes
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SOURCES OF MUSLIM LAW IN HINDI मुस्लिम विधि के स्रोत

SOURCES OF MUSLIM LAW मुस्लिम विधि के स्रोत-


A) PRIMARY SOURCES  ( प्राथमिक स्रोत )
B) SECONDARYSOURCES  ( द्वितीयक स्रोत )


A) PRIMARY SOURCES  ( प्राथमिक स्रोत )➡ 


1) कुरान ( Quran )
2) हदीस (Traditions of Prophet )
3) इज्मा ( Consensus Opinion of The Jurists )
4) कयास (Analogical Deduction )


1) कुरान ( Quran ) ➡

📌 यह मुस्लिम विधि का पहला और मुस्लिम समुदाय का पवित्र ग्रंथ है ।
📌कुरान को Book of God भी कहा जाता है।
📌मुस्लिम की यह मान्यता है कि मोहम्मद पैगंबर को ईश्वर से दैवीय संकेत प्राप्त होते थे।
📌उन्हें पहला संकेत 609 ईसवी में प्राप्त हुआ।
📌इसके बाद समय-समय पर 632 ईस्वी तक जीवनपर्यंत उन्हें देवी संदेश प्राप्त होते रहे।
📌मोहम्मद साहब पढ़े लिखे नहीं थे उन्हें जो संकेत प्राप्त होते थे वह अपने शिष्य को बताते और उनके शिष्य इसे लिपिबद्ध करते गए।
📌मोहम्मद साहब के मृत्यु के बाद सारे दैवीय संदेशों को एकत्र किया गया तथा इनका संकलन करके एक व्यवस्थित पुस्तक प्रदान की गई इसे ही कुरान कहा जाता है।
📌कुरान धर्म कानून तथा नैतिकता का सम्मिश्रण है।
📌पुरे कुरान को विधि का स्रोत नहीं माना जाता है, क्योंकि कुरान की केवल 200 आयतें ही विधि से संबंधित है।


2) हदीस (Traditions of Prophet ) ➡

📌 पैगंबर की परंपराओं को सुन्ना (हदीस) कहा जाता है।
📌पैगंबर मोहम्मद साहब द्वारा बिना दैवीय संकेतों के सामान्य मनुष्य के रूप में, जो कुछ भी कहा या किया गया उन्हें  सुन्ना (हदीस) कहा गया, और यह सब पैगंबर के परंपराओं के अंतर्गत आते हैं तथा इसमें पैगंबर का मौन समर्थन भी आता है।
📌सामान्यता हदीस कानून का ऐसा विवरण है जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी समाज में प्रचलित होता रहा।
📌काफी समय तक ना तो इसे लिपिबद्ध किया गया और ना ही इससे सुव्यवस्थित रखा गया।
📌लेकिन "अश मलिक" की पुस्तक "मुक्ता", "अबु हनबल" की पुस्तक "मसदन" तथा "इमाम मुस्लिम" की पुस्तक "शाही मुस्लिम" इत्यादि में विद्वानों ने इन परंपराओं को एकत्रित किया है।
📎 हदीस को तीन भागों में वर्गीकृत किया गया है-
a) अहादिस-ए-मुतवातिर (Universal Traditions)
b) अहादिस-ए मशहूर (Popular Traditions)
c) अहादिस-ए-अहद (Isolated Traditions)


3) इज़्मा ( Consensus Opinion of The Jurists ) ➡

📌 किसी नई समस्या के लिए कुरान एवं हदीस में कोई नियम नहीं होने पर, ज्यूरिस्ट के मतैक्य निर्णय द्वारा नया कानून प्राप्त कर लिया जाता था। इस प्रकार का मतैक्य निर्णय इज़्मा कहलाया।
📎 इज़्मा तीन प्रकार का होता है -
a)सहयोगियों का इज़्मा।
b)न्यायाधीशों का इज़्मा।
c)जनसाधारण का इज़्मा।


4) कयास (Analogical Deduction ) ➡

📌 किसी नवीन समस्या से संबंधित नियम प्राप्त करने के लिए कुरान तथा हदीस में उसी प्रकार की समस्या से संदर्भित नियम को, सीधे कुरान या हदीस के मूल पाठ से ही निगमित कर लिया जाता था, इसे ही कयास कहते हैं।
📌लेकिन कयास द्वारा नए नियमों का प्रतिपादन नहीं होता है


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B) SECONDARYSOURCES  ( द्वितीयक स्रोत )➡


1) Customs ( रिवाज )
2) Judicial Decision ( न्यायिक निर्णय )
3) Legislation ( विधान )

1) Customs ( रिवाज )➡

📌 रिवाज को मुस्लिम विधि के स्रोत के रूप में कभी मान्यता नहीं दी गई केवल  Supplementary के रूप में उसका कभी-कभी उल्लेख पाया जाता है।

📌अब्दुल हुसैन वर्सेस सोना डेरो -
इस वाद में प्रिवी कौंसिल का कहना था कि 'किसी मूल ग्रंथ के लिखित कानून की तुलना में एक प्राचीन तथा अपरिवर्तनीय रिवाज को वरीयता दी जाएगी'।

2) Judicial Decision ( न्यायिक निर्णय )➡
📌इसमें सुप्रीम कोर्ट प्रिवी कौंसिल और भारत के हाईकोर्ट के विनिश्चय आते हैं
📌 किसी वरिष्ठ न्यायालय का निर्णय इसके अधीनस्थ सभी न्यायालयों के लिए अनिवार्यतः मान्य होता है, इसे पूर्ण निर्णय अर्थात नजीर का सिद्धांत कहते हैं।

3) Legislation ( विधान )➡
📌विधान का अर्थ होता है विधान मंडल द्वारा कानून का निर्माण करना।
📌मुस्लिम समुदाय के संबंध में कुछ एक्ट बनाए गए हैं

✒ Muslim waqf validating Act (1913)
✒Child marriage restraint act (1929)
✒Muslim personal law shariat application act (1937)
✒Dissolution of Muslim Marriage Act (1939)
✒Muslim women Act (1986)

वक्फ (Waqf)

वक्फ (Waqf)-

संपत्ति को ईश्वर के स्वामित्व के अंतर्गत स्थित कर देना और उससे प्राप्त लाभ को मनुष्य के लाभ के लिए लगाना ही वक्फ़ कहलाता है
वक्फ़ का निर्माण होते ही वक्फ़कर्ता की संपत्ति से वक्फ़कर्ता का स्वामित्व (Ownership) समाप्त हो जाता है व संपत्ति का स्वामित्व वक्फ़बोर्ड में निहित हो जाता है वक्फ़ का प्रबंधक मुतवल्ली कहलाता है किंतु मुतवल्ली का वक्फ़ की संपत्ति में कोई अधिकार नहीं होता है
Musilm Waqf Validating Act 1913 के Section (21) के अनुसार "वक्फ़ का तात्पर्य है इस्लाम धर्म में निष्ठा प्रकट करने वाले किसी व्यक्ति द्वारा किसी संपत्ति का मुस्लिम विधि के अंतर्गत धार्मिक या खैरात समझे जाने वाले किसी उद्देश्य के लिए स्थाई समर्पण वक्फ़ कहलाता है"।

सुन्नी विधि में वक्फ़ के आवश्यक तत्व निम्न है -
1) किसी संपत्ति का स्थाई समर्पण किया जाना चाहिए।
2) इस्लाम धर्म में निष्ठा रखने वाले स्वस्थचित् (Soundmind) तथा वयस्क (Major) व्यक्ति द्वारा किया गया वक्फ़ ही मान्य (Valid) होता है।
3) मुस्लिम विधि द्वारा धार्मिक व खैराती समझे जाने वाले किसी उद्देश्य के लिए किया गया वक्फ़ ही मान्य (Valid) होता है।
  मान्य वक्फ़ के लिए पहला आवश्यक तत्व यह है कि संपत्ति का स्थाई समर्पण होना चाहिए। मुस्लिम विधि द्वारा धार्मिक एवं खैराती समझे जाने वाले उद्देश्य के लिए संपत्ति का समर्पण वक्फ़ का एक आवश्यक है।
समर्पण की क्रिया के साथ साथ उसकी घोषणा भी की जानी चाहिए। समर्पण की घोषणा के लिए निश्चित शब्दों का होना आवश्यक नहीं है। वह मौखिक और लिखित दोनों प्रकार का हो सकता है।
  अबू यूसुफ के अनुसार वक्फ द्वारा संपत्ति का समर्पण केवल घोषणा द्वारा पूरा हो जाता है और कब्जे का परिदान या मुतवल्ली की नियुक्ति की आवश्यकता नहीं होती है।
जबकि इमाम मोहम्मद के अनुसार जब तक की घोषणा के अतिरिक्त मुतवल्ली की नियुक्ति ना की जाए व उस संपत्ति का कब्जा ना दिया जाए तब तक वक्फ पूर्ण नहीं होता है।
 भारत में अबू यूसुफ का मत माना जाता है।
संपत्ति के वक्फ के लिए संपत्ति का स्थाई समर्पण आवश्यक होता है क्योंकि एक बार वक्फ का निर्माण हो जाने के बाद उसे वापस नहीं लिया जा सकता है कोई भी संपत्ति वक्फ की विषय-वस्तु हो सकती है। केवल अचल संपत्ति का ही नहीं बल्कि चल संपत्ति का भी वक्फ किया जा सकता है वक्फ मूर्त या अमूर्त संपत्ति का भी हो सकता है।

  मान्य वक्फ के लिए दूसरा आवश्यक तत्व यह है कि वह इस्लाम धर्म में निष्ठा रखने वाले व्यक्ति द्वारा किया जाए।
   व्यक्ति से तात्पर्य ऐसे व्यक्ति है जिसने भारतीय वयस्कता अधिनियम 1875 के अंतर्गत वयस्कता की आयु अर्थात 18 वर्ष की आयु प्राप्त कर ली हो और यदि न्यायालय द्वारा उस व्यक्ति का संरक्षक नियुक्त किया गया है तो मान्य वक्फ के लिए उसकी आयु 21 वर्ष होनी आवश्यक होती है, तथा उस व्यक्ति का स्वस्थचित्त होना भी आवश्यक है जिससे वह अपनी संपूर्ण संपत्ति या उसके किसी भाग का समर्पण करने में सक्षम हो।
 अवयस्क द्वारा किया गया वक्फ आरंभ से ही शून्य होता है और ऐसा व्यक्ति वयस्क होने पर वक्फ का अनुसमर्थन नहीं कर सकता है और अवयस्क का संरक्षक भी अवयस्क की ओर से वक्फ का निर्माण नहीं कर सकता है।


   मान्य वक्फ का तीसरा आवश्यक तत्व यह है कि संपत्ति का समर्पण ऐसे प्रयोजनों के लिए होना चाहिए जिसे मुस्लिम विधि में धार्मिक या खैराती माना जाता है।
 जो कि निम्न है-
1) मस्जिदों में नमाज के लिए इमामों का प्रबंध
2) इमामबाड़ों की मरम्मत
3) मस्जिदों में चिराग जलाना
4) गरीब रिश्तेदारों व आश्रितों का भरण-पोषण
5) गरीबों को दान
6) किसी ईदगाह को दान
7) हज यात्रा के लिए गरीबों की मदद
8) धर्मशालाएं बनवाना

मान्य वक्फ के लक्षण Characters of valid Waqf-
1)अप्रतिसंहरणीयता
2)शाश्वतता
3)अहस्तानांतरणीय

वक्फ के प्रकार -
1) Public Waqf
2) Private Waqf (Waqf_alal_aulad)

Revocation of Waqf ( वक्फ का प्रतिसंहरण ) - जब एक बार कोई वक्फ को कर दिया जाता है तो वक्फ की गई संपत्ति वक्फ बोर्ड के स्वामित्व में निहित हो जाती है वक्फ किए जाने के बाद वक्फ का खंडन अर्थात प्रति शरण नहीं किया जा सकता है परंतु एक वसीयती वक्फ वक्फकर्ता द्वारा अपनी मृत्यु से पूर्व किसी भी समय वापस लिया जा सकता है क्योंकि वसीयत द्वारा वक्फ वक्फकर्ता की मृत्यु के बाद प्रभावी होता है अतः वास्तव में प्रतिसंहरण वसीयत का होता है ना कि वक्फ का।

मुतवल्ली (Mutawalli) -

वक्फ के प्रबंधक को मुतवल्ली कहते हैं। मुस्लिम विधि के अनुसार वक्फ की गई संपत्ति के स्वामित्व से संबंधित सभी अधिकार खुदा में निहित रहते हैं और मुतवल्ली का वक्फ की संपत्ति में कोई स्वामित्व नहीं होता है क्योंकि वह वक्फ की संपत्ति का केवल प्रबंधक होता है ना कि स्वामी। उसका वक्फ की संपत्ति में कोई हित भी नहीं होता है।
किसे मुतवल्ली नियुक्त किया जा सकता है? (Who can be Appointed Mutawalli? )
कोई भी व्यक्ति को स्वस्थचित्त हो तथा वयस्क हो और किसी विशेष वक्फ के अंतर्गत आवश्यक कर्तव्यों का पालन कर सकता हो, ऐसे व्यक्ति को मुतवल्ली नियुक्त किया जा सकता है।
निम्नलिखित व्यक्ति मुतवल्ली के रूप में कार्य कर सकते हैं:-
1)संस्थापक स्वयं मुतवल्ली का कार्य कर सकता है
2)संस्थापक के बच्चे
3)स्त्री
4)गैर मुस्लिम
5)शिया वक्फ में सुन्नी मुस्लिम
6)सुन्नी वक्फ में सुन्नी मुस्लिम
मुतवल्ली के पद के लिए लिंग या धर्म से संबंधित कोई प्रतिबंध नहीं है। किसी भी धर्म के स्त्री या पुरुष को मुतवल्ली नियुक्त किया जा सकता है।
मुतवल्ली को वक्फ के अंतर्गत कर्तव्यों का पालन करने में सक्षम होना चाहिए।
यदि कोई गैर मुस्लिम पुरुष या स्त्री कुछ धार्मिक कर्तव्यों का पालन नहीं कर सकते हैं अतः ऐसे प्रयोजनों के लिए किसी वक्फ में कोई गैर मुस्लिम पुरुष या स्त्री को मुतवल्ली के रूप में नियुक्त नहीं किया जा सकता है।

अवयस्क की मुतवल्ली के रूप में नियुक्ति -
सामान्य नियम यह है कि मुतवल्ली के पद पर किसी अवयस्क या अस्वस्थचित्त व्यक्ति को नियुक्त नहीं किया जा सकता है किंतु यदि मुतवल्ली का पद वंशानुगत हो और जो व्यक्ति उत्तराधिकार का हक रखता हो वह अवयस्क हो या जहां वक्फ-नामे में मुतवल्ली के पद का अधिकार का पद दिया गया हो और मुतवल्ली के मृत्यु के बाद इस पद पर आने वाला व्यक्ति अवयस्क हो तो न्यायालय तब तक के लिए मुतवल्ली के कार्य करने के लिए किसी अन्य को नियुक्त कर सकता है जब तक कि वह अवयस्क उत्तराधिकारी वयस्क नहीं हो जाता है।

मुतवल्ली की नियुक्ति कौन कर सकता है? (Who can appoint Mutawalli?)
सामान्य नियम यह है कि वक्फ का संस्थापक वक्फ को निर्मित करते समय मुतवल्ली की नियुक्ति स्वयं करता है किंतु यदि बिना मुतवल्ली की नियुक्ति के वक्फ किया जाए तो इमाम मोहम्मद के अनुसार ऐसा वक्फ अमान्य होता है।
लेकिन अबू यूसुफ के अनुसार ऐसा वक्फ मान्य रहता है और संस्थापक ही प्रथम मुतवल्ली हो सकता है।  वक्फकर्ता को मुतवल्ली के पद के उत्तराधिकार के संबंध में नियम बनाने व उत्तराधिकारियों को मनोनीत करने की शक्ति होती है।

न्यायालय को मुतवल्ली की नियुक्ति करते समय निम्न बातों को ध्यान में रखना चाहिए:
1)न्यायालय को यथासंभव संस्थापक के निर्देशों का पालन करना चाहिए परंतु न्यायालय का मुख्य कर्तव्य उन व्यक्तियों के हितों को ध्यान में रखना होता है जिनके लाभ के लिए वक्फ किया गया है
2)एकदम अनजान व्यक्ति के मुकाबले संस्थापक के परिवार के सदस्यों को प्राथमिकता देनी चाहिए।

मुतवल्ली की शक्तियां एवं कर्तव्य (Powers and Duties of Mutawalli) 

1)मुतवल्ली ऐसे सभी कार्य कर सकता है जो शर्तों के अंतर्गत वक्फ संपत्ति की रक्षा करने एवं वक्फ के प्रशासन के लिए युक्ति युक्त हो।
2)जहां तक उसकी शक्तियों व कर्तव्यों का संबंध है उसकी स्तिथि न्यासी (Trustee) जैसी होती है,  लेकिन अंतर केवल इतना है की न्यास (Trust) के मामले में संपत्ति का स्वामित्व न्यासियों (Trustees) में निहित होता है जब कि वक्फ में संपत्ति खुदा में निहित होती है।
3)मुतवल्ली संपत्ति का केवल एक प्रबंधक होता है। वह अपनी इच्छा अनुसार वक्फ के प्रबंध की शक्ति नहीं रखता। मुतवल्ली को उसके संस्थापक द्वारा निर्धारित उद्देश्य और अनुदेशों के अनुसार वक्फ की संपत्ति का प्रबंध करना होता है। यदि आवश्यकता हो तो वह एजेंट भी रख सकता है
4)वह वक्फ की संपत्ति को हस्तानांतरण तभी कर सकता है जबकि :-
a)वक्फ-नामा में प्रावधान द्वारा ऐसा करने के लिए प्राधिकृत हो।
b)न्यायालय से सहमति ले ली हो।
c)तात्कालिक आवश्यकता के कारण ऐसा किया जाना आवश्यक हो।
5)न्यायालय की अनुमति से मुतवल्ली संपत्ति को बेच  या उसको कहीं स्थानांतरण कर सकता है।
6)यदि संस्थापक व उसका उत्तराधिकारी दोनों मर गए हो और वक्फ में मुतवल्ली के पद के उत्तराधिकार के संबंध में कोई उपबंध ना हो, तो मुतवल्ली यदि मृत्यु की कगार पर है तो वह अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर सकता है। यदि वह स्वस्थ है तो वह अपने उत्तराधिकारी को नियुक्त नहीं कर सकता है। 7)मुतवल्ली संस्थापक द्वारा निर्धारित परिश्रमिक अर्थात वेतन को पाने का अधिकारी होता है यदि वह राशि बहुत कम है तो मुतवल्ली उसे बढ़ाने के लिए न्यायालय में आवेदन कर सकता है न्यायालय के द्वारा निर्धारित वेतन वक्फ की आय के दसवें भाग से अधिक नहीं हो सकता है।

मुतवल्ली का हटाया जाना (Removal of Mutawalli) -

वक्फ संपत्ति का कब्जा मुतवल्ली को प्रदान करने के बाद सामान्यता वाकिफ़ (संस्थापक) मुतवल्ली को उसके पद से नहीं हटा सकता है।
वक्फ संपत्ति के कब्जे के परिदान के दौरान मुतवल्ली को उसके पद से तभी हटाया जा सकता है जबकि संस्थापक ने वक्फ-नामा में ऐसी शक्ति स्पष्ट करके अपने पास सुरक्षित कर लिया हो।
इसके अलावा न्यायालय द्वारा मुतवल्ली के विरुद्ध लगाए गए आरोपों की जांच करके और उसे बचाव का युक्तियुक्त समय प्रदान करके उसे पद से हटाया जा सकता है।
निम्न मामलों में मुतवल्ली को पद से हटाया जा सकता है जबकि :-
1)मुतवल्ली संपत्ति के वक्फ होने से इंकार करे और अपने लिए ही स्वामित्व का प्रतिकूल दावा (Adverse claim) करे।
2)अपने अधिकार में पर्याप्त धन होते हुए भी वक्फ संपत्ति के परिसर की मरम्मत न कराए।
3)जानबूझकर वक्फ संपत्ति को क्षति पहुंचाए
4)उसका कु-प्रबंध (Miss Management) करे।
5)वह दिवालिया हो जाए
6)जहां मुतवल्ली वक्फ संपत्ति की आय को वक्फ-नामे में दिए गए निर्देशों के विरुद्ध खर्च करे।
7)जहां मुतवल्ली वक्फ संपत्ति को अपने निजी कार्यों के लिए खर्च करे।
8)जहां वह शारीरिक व मानसिक रूप से असमर्थ हो गया हो।
    उपरोक्त परिस्थितियों में मुन्नी को उसके पद से हटाया जा सकता है

मेहर में वृद्धि या कमी (Increase or Decrease in Mehr/Dower) हिबा-ए-मेहर (Hiba-e-Mehr)

मेहर में वृद्धि या कमी (Increase or Decrease in Mehr/Dower)-हिबा-ए-मेहर (Hiba-e-Mehr)

📌पति विवाह के बाद किसी भी समय मेहर में वृद्धि कर सकता है लेकिन पति को मेहर की धनराशि या संपत्ति में कमी करने का अधिकार नहीं है।
लेकिन विवाह के बाद पत्नी अपनी स्वतंत्र सहमति से मेहर की पूरी धनराशि छोड़ सकती है, या कम कर सकती है।
📌एक मुस्लिम पत्नी जिसने यौनावस्था की आयु (Age Of Puberty) प्राप्त कर ली है, वह मेहर में पूर्ण या आंशिक रूप से छूट देने में सक्षम है, भले ही उसने Indian Majority Act 1875 के तहत वयस्कता की आयु (Age of Majority) प्राप्त ना की हो।
📌पत्नी के द्वारा मेहर में दी गई छूट को हिबा-ए-मेहर (Hiba-e-Mehr) कहते हैं।
📌पत्नी द्वारा मेहर में दी गई ऐसी छूट स्वतंत्र सहमति (Free Consent) से दी जानी चाहिए।
नूर निशा बनाम ख्वाजा मोहम्मद के वाद में पत्नी ने मेहर की राशि में छूट उस समय दी थी जबकि उसके पति की मृत्यु हो गई थी और उसका मृत शरीर घर में था।
निर्णय हुआ कि उस समय पत्नी, पति की मृत्यु के कारण मानसिक दुख के अधीन थी उस समय दी गई छूट स्वतंत्र सहमति में नहीं कही जा सकती।

BY ZEENAT SIDDIQUE 


मेहर के प्रकार (Types of Dower), Mehr-e-Misl, Mehr-e-Musa, Mu_ajjal / Prompt Dower (तुरंत देय मेहर), Mu_vajjal / Deferred Dower (स्थगित मेहर)

मेहर के प्रकार (Types of Dower)-

मेहर दो प्रकार की होती है:

1) उचित मेहर या अनिश्चित मेहर या रिवाज़ी मेहर (Proper Dower or Unspecified Dower)➡

इसे Mehr-e-Misl के नाम से भी जाना जाता है।
यदि मेहर की राशि विवाह के समय निश्चित ना की गई हो तब उस स्थिति में पत्नी उचित यानी अनिश्चित मेहर की हकदार होती है, चाहे विवाह कि संविदा इस शर्त पर हो, कि पत्नी मेहर की प्राप्ति के लिए कोई वाद दायर नहीं करेगी।

रिवाज़ी मेहर का निर्धारण निम्न तरीकों से होता है:
1) पत्नी का व्यक्तिगत गुण।
2) पत्नी के पिता का सामाजिक स्तर।
3) पत्नी के पितृ कुल की स्त्रियों को दिया गया मेहर।
4) पति की आर्थिक स्थिति।

📌शिया विधि में रिवाज़ी मेहर की अधिकतम सीमा 500 दिरहम है। शिया विधि में 500 दिरहम से अधिक का मेहर अमान्य होता है।
   1 दिरहम = 17.48 Rs
  500 दिरहम =  (17.48 × 500) ➡8,740/-Rs
📌सुन्नी विधि में रिवाज़ी मेहर की कोई अधिकतम सीमा निर्धारित नहीं है।

2) निश्चित मेहर (Specified Dower)-

📌इसे Mehr-e-Musa / Mehr-e-Tafweez के नाम से भी जाना जाता है।
📌यदि विवाह की संविदा में मेहर की धनराशि या संपत्ति का उल्लेख होता है तो ऐसा मेहर निश्चित मेहर कहलाता है।
📌यदि विवाह के पक्षकार वयस्क व स्वस्थचित्त है, तो वह मेहर की धनराशि विवाह के समय खुद तय कर सकते हैं।
📌यदि विवाह संविदा विवाह के पक्षकार के संबंध में उनके अभिभावक या कानूनी संरक्षक द्वारा की जाती है, तो अभिभावक या कानूनी संरक्षक ही विवाह के पक्षकारों के अवयस्क होने की अवस्था में मेहर की धनराशि तय कर सकते हैं।
📌मेहर की धनराशि लिखित व मौखिक दोनों प्रकार की हो सकती है।
📌किसी अभिभावक द्वारा निश्चित की गई मेहर की धनराशि के भुगतान के लिए कभी भी अभिभावक व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी नहीं होगा।

शिया विधि में अगर अवयस्क (Minor) का विवाह अभिभावक द्वारा संपन्न कराया जाता है तो पति के असमर्थ होने पर मेहर के भुगतान के लिए अभिभावक व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी होंगे।

निश्चित मेहर के प्रकार (Types Of Specified Dower)-

निश्चित मेहर दो प्रकार की होती है:-
1) Mu_ajjal / Prompt Dower (तुरंत देय मेहर)
2) Mu_vajjal / Deferred Dower (स्थगित मेहर)

1) Mu_ajjal / Prompt Dower (तुरंत देय मेहर)-

निश्चित मेहर में अगर यह तय हुआ है की विवाह पूर्ण हो जाने के बाद पत्नी जब चाहे मेहर की मांग कर सकती है तब ऐसा मेहर Mu_ajjal / Prompt Dower (तुरंत देय मेहर) कहलाएगा।इसका अर्थ यह नहीं है कि विवाह के तुरंत बाद पत्नी को इस मेहर की मांग कर लेनी चाहिए बल्कि इसका अर्थ यह है कि पत्नी इस प्रकार के मेहर कि कभी भी मांग कर सकती है, और जब भी वह मेहर की मांग करेगी पति को मेहर का भुगतान करना ही होगा।

2) Mu_vajjal / Deferred Dower (स्थगित मेहर)-

मृत्यु या विवाह विच्छेद या Agreement के द्वारा किसी निश्चित घटना के घटित होने पर दिया जाने वाला मेहर Mu_vajjal / Deferred Dower (स्थगित मेहर) कहलाता है।उदाहरण - पत्नी व पति के बीच यह तय हुआ है कि जैसे ही पति दूसरा विवाह करेगा उसे तुरंत मेहर का भुगतान करना पड़ेगा।
मृत्यु या विवाह विच्छेद या एग्रीमेंट के द्वारा किसी निश्चित घटना के घटित होने से पूर्व पत्नी इस प्रकार के मेहर की मांग नहीं कर सकती है। बल्कि केवल पति ही ऐसा मेहर पत्नी को इन घटनाओं से पूर्व प्रदान कर सकता है।

📌 यदि मेहर विवाह के समय निश्चित हो गया है तो कबीन नामा (Kabeen-Nama) में यह वर्णित रहता है कि मेहर का कितना भाग Mu_ajjal / Prompt Dower (तुरंत देय मेहर) होगा वह कितना भाग Mu_vajjal / Deferred Dower (स्थगित मेहर) होगा।

📌 यदि कबीन नामा (Kabeen-Nama) में यह वर्णित न हो कि मेहर का कितना भाग Mu_ajjal / Prompt Dower (तुरंत देय मेहर) होगा वह कितना भाग Mu_vajjal / Deferred Dower (स्थगित मेहर) होगा?

        इस स्थिति में सुन्नी विधि में मेहर का आधा भाग Mu_ajjal / Prompt Dower (तुरंत देय मेहर) व आधा भाग Mu_vajjal / Deferred Dower (स्थगित मेहर) मान लिया जाएगा

        जबकि शिया विधि के अंतर्गत मtहर की पूरी राशि Mu_vajjal / Deferred Dower (स्थगित मेहर) मानी जाएगी

 BY ZEENAT SIDDIQUE


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MEHAR-E-MISL | MEHAR-E MUSA | मेहर के प्रकार (Types of Dower) # PART 2 VIDEO LECTURE

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